
बचपन…वो एक समय था, जब बचपन सिर्फ़ एक उम्र नहीं, बल्कि जीने का सबसे खूबसूरत तरीका था। मिट्टी के गुड्डे-गुड़िया हमारे राजा-रानी होते थे। मिट्टी के घर-दुआर, जो किसी महल से कम नहीं लगते थे, कांच की गुट्टी, सीमेंट की गुट्टी और गिल्ली-डंडा में हमारी दुनिया सिमटी होती थी। वो हंसी, वो शोर, वो दौड़ – भाग सबकुछ कितना सच्चा, कितना अपना लगता था।
गांव की गलियों में लुका-छिपी खेलते हुए, पेड़ों पर चढ़ते-उतरते हुए, वो चोर-पुलिस का खेल, वो छुर खेल, वो आता – पाता का खेल जिसे बिना किसी डर के, बिना किसी फ़िक्र के बस जीते थे हम। सूरज निकलता तो खेलने की होड़ लगती, और सूरज ढलते ही मम्मी की आवाज़ पर घर लौट आते थे। तब वक्त भी जैसे हमारे साथ खेलता था।
लेकिन अब सब कुछ बदल गया है। आज बच्चों का बचपन मोबाइल की स्क्रीन में सिमट गया है। अब ना वो मिट्टी में खेलने की छूट है, ना वो धूल से सने घुटनों पर मां की मुस्कान। अब उंगलियां सिर्फ़ स्क्रीन पर चलती हैं, आंखें चमकते पिक्सल में खो जाती हैं और हंसी वो बस इमोजी में रह गई है।
जहां पहले दोस्त घर बुलाने आते थे, अब वो ऑनलाइन इनवाइट भेजते हैं। खेल अब दौड़-भाग नहीं, बस स्क्रॉल करना बन गया है। और इस बदलाव की सबसे बड़ी कीमत बच्चों की मासूमियत चुका रही है। बढ़ते चश्मे, कम होती आंखों की चमक, और एक सूनी-सी हंसी यही बन गया है नया बचपन।
मोबाइल अब एक आदत नहीं, एक लत बन चुकी है।
एक ऐसी आदत, जो बच्चों को उनकी असली दुनिया से दूर कर रही है वो दुनिया जहां पेड़ थे, मिट्टी थी, दोस्त थे, और सबसे जरूरी बेफिक्री थी।
पर अभी देर नहीं हुई है। अगर हम चाहें, तो फिर से वो बचपन लौटा सकते हैं। हर छुट्टी में बच्चों को गांव ले जाएं, उन्हें खेत-खलिहानों से मिलवाएं, मिट्टी में खेलने दें। फिर से उन्हें वो हंसी याद दिलाएं, जो चार दोस्तों के साथ खुले मैदान में आती थी बिना किसी ऐप, बिना किसी स्क्रीन के।
आइए, मिलकर बचपन को उसकी असली खुशबू, उसकी सच्ची हंसी, और उसका खुला आसमान लौटाएं।
क्योंकि बचपन, सिर्फ़ एक वक्त नहीं एक बार मिलने वाला जादू है।
✍️ – कुमार हेमन्त
जनजातीय एवं एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग , डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी विश्वविद्यालय राॅंची
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