आरजेडी नेता और लालू प्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी का आरोप है कि बिहार विधानसभा चुनाव एनडीए ने 40 हजार करोड़ की रिश्वत देकर जीता. उनका यह भी आरोप है कि चुनाव आयोग और सरकारी मशीनरी ने एनडीए को चुनाव जीतने में मदद की. आरजेडी में चुनाव हारने पर मंथन अभी चल ही रहा है, लेकिन तेजस्वी ने पहले ही महागठबंधन की हार के निष्कर्ष निकाल लिए हैं. कोशिश तो ईवीएम को भी दोषी ठहराने की हुई थी, लेकिन इसमें तेजस्वी फेल हो गए. शायद इसीलिए नतीजे आने पर परिवार से अब अलग हो चुके उनके बड़े भाई तेज प्रताप ने उन्हें ‘फेलस्वी’ कहा था. अगर आरोपों को अलग कर दिया जाए और तेजस्वी यादव के फ्लाप हो जाने के असली कारणों की पड़ताल की जाए तो पता चलेगा कि उनके पिता ही लगातार उनकी राह में अवरोध पैदा करते रहे हैं.
2015 का गठबंधन टूटने से नहीं रोका
नीतीश कुमार एनडीए से अलग होने के बाद जब 2015 में लालू यादव के साथ आ गए थे तो महागठबंधन ने बड़ी जीत हासिल की थी. पर, लालू यादव ने हड़बड़ी कर दी. आरजेडी के टिकट पर उनके दोनों बेटे- तेज प्रताप और तेजस्वी यादव भी चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे थे. लालू ने नीतीश पर दबाव डाल कर छोटे बेटे तेजस्वी को डेप्युटी सीएम और बड़े बेटे तेज प्रताप को मंत्री बनवा दिया. सरकारी फैसलों में भी लालू परिवार की दखलंदाजी बढ़ने लगी. नीतीश कुमार स्वतंत्रता के साथ सरकार चलाने के आदी रहे हैं. जाहिर है कि नीतीश को यह नागवार लगा होगा. वे तो उसी दिन से महागठबंधन के साथ रहते हुए वहां से निकलने का बहाना तलाशने लगे थे, जब लालू के बेटों को उन्हें मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण विभाग देने पड़े. यह अवसर तब आया, जब जमीन के बदले नौकरी मामले में तेजस्वी का नाम भी जुड़ गया. भ्रष्टाचार पर जीरो टोलेरेंस की अपनी नीति बताते हुए नीतीश ने तेजस्वी को जनता के बीच जाकर सफाई देने को कहा. तेजस्वी ने उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया. नतीजतन 2017 में नीतीश ने महागठबंधन से अपना रिश्ता तोड़ लिया. भाजपा पहले से ही उनके लिए तैयार बैठी थी. भाजपा विधायकों के समर्थन से उन्होंने एनडीए की सरकार बना ली. लालू की बेटों को आगे बढ़ाने की हड़बड़ी ने महागठबंधन की मजबूत एकता ध्वस्त कर दी.
नीतीश के लिए वीटों का इस्तेमाल नहीं
लालू यादव अपनी रणनीति में एक बार और कामयाब हुए थे. 2020 का चुनाव नीतीश ने एनडीए में रहते हुए लड़ा था. उन्हें तत्कालीन लोजपा (अब एलजेपी-आर) के प्रमुख चिराग पासवान की वजह से विधानसभा में कम सीटें आईं. जेडीयू 43 सीटों पर सिमट गई. भाजपा 75 सीटों के साथ विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनी. इसके बावजूद भाजपा ने नीतीश कुमार को सीएम की कुर्सी पर बिठाया. नीतीश ने अपनी ओर से कभी यह भले उजागर नहीं किया कि चिराग पासवान का एनडीए से अलग होकर लड़ना भाजपा की साजिश थी या संयोग, लेकिन मीडिया में ये बातें खूब चलीं कि चिराग अपने को नरेंद्र मोदी का हनुमान बताते हैं तो वे उस एनडीए के खिलाफ क्यों चुनाव लड़े, जिसका नेतृत्व भाजपा के पास ही था. भाजपा की साजिश की गंध लोग इसलिए भी महसूस कर रहे थे कि चिराग ने जेडीयू के खिलाफ उम्मीदवार तो उतारे, लेकिन भाजपा को बख्श दिया था. खैर, नीतीश ने भाजपा से अपने भीतर की नाराजगी का बदला 2022 में उसका साथ छोड़ कर चुका लिया. लालू-तेजस्वी की देख-रेख वाले महागठबंधन की मदद से नीतीश ने सरकार बना ली. लालू ने उन्हें मदद देते वक्त वचन ले लिया था कि 2025 में बिहार विधानसभा का चुनाव तेजस्वी के नेतृत्व में होगा और नीतीश केंद्र की राजनीति करेंगे. नीतीश ने नालंदा की एक सभा में तेजस्वी की मौजूदगी में इसकी घोषणा भी कर दी. पर, नीतीश को एक बार लालू की मदद की जरूत महसूस हुई तो लालू ने वीटो का इस्तेमाल नहीं किया.
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