प्रदेश भाजपा के प्रभारी लक्ष्मीकांत वाजपेयी का भी लगता है कि लगाव काफी कम हो गया है। विधानसभा चुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद दो-तीन बार वह रांची आए, बैठक की खानापूर्ति कर चले गए। लगभग दो महीने से प्रदेश भाजपा कार्यकर्ताओं-नेताओं को उनका दर्शन नहीं हुआ है। नये प्रदेश भाजपा अध्यक्ष के नाम से पार्टी पर्दा ही नहीं उठा रही है। परिणाम स्वरूप भाजपा तो झारखंड में अपने को मस्त बताती है लेकिन कार्यकर्ता पूरी तरह सुस्त और कार्यक्रम पस्त होते दिखने लगे हैं। प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी के बयानों और प्रतिक्रियाओं के अलावा रघुवर दास व चंपाई सोरेन द्वारा बीच बीच में किए जाने वाले कार्यक्रमों से ही पार्टी कुछ जिंदा मालूम पड़ रही है। लेकिन भाजपा के लिए कभी उर्वरा रही झारखंडी भूमि के कार्यकर्ता अब इसे नाकाफी मानने लगे हैं। बड़े बदलाव की बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं।
इसके पीछे पार्टी के जानकार बताते हैं कि संगठन चुनाव की प्रक्रिया लगातार लंबी खींचती जा रही है। प्रदेश में भाजपा के 517 मंडल हैं। मंडल अध्यक्षों के चुनाव के बाद ही जिलाध्यक्षों के चुनाव का प्रावधान है। इन 517 मंडलों में आधे से अधिक में अध्यक्ष के नाम पर सहमति बनाने की कोशिश हुई है। लेकिन किसी मंडल में अध्यक्ष बनाने की अब तक आधिकारिक घोषणा नहीं की जा सकी है। परिणामस्वरूप जिलाध्यक्षों के मनोनयन या चुनाव की प्रक्रिया ही आगे नहीं बढ़ पा रही है। इसका असर यह है पार्टी के किसी भी कार्यक्रम में वर्तमान मंडल और जिलाध्यक्षों की सक्रियता नहीं दिख रही है। उनका उस कार्यक्रम को सफल बनाने के प्रति जोर नहीं दिख रहा है। कारण स्पष्ट है। मंडल और जिलाध्यक्षों को साफ साफ लगता है कि वह आगे रहेंगे भी या नहीं, इसकी कोई गारंटी नहीं, फिर वह क्यों अभी अपना श्रम और साधना का व्यर्थ उपयोग करें।
जेनरेशन शिफ्टिंग पर भी पार्टी का ध्यान नहीं
प्रदेश भाजपा में जेनरेशन शिफ्टिंग भी एक बड़े सवाल के रूप में खड़ा हो गया है। बाबूलाल मरांडी, रघुवर दास, चंपाई सोरेन सरीखे नेता लगभग 70 के आसपास हैं। झामुमो में जिस तरह युवा तुर्क के हाथों में पार्टी की कमान आ गयी है, यहां इस मुद्दे पर असमंजस की स्थिति है। बिहार चुनाव में पार्टी की विशेष सक्रियता की वजह से झारखंड केंद्रीय नेतृत्व में प्राथमिकता में भी नहीं दिख रहा है।
शिवराज और हिमंता को भी ढूंढ रहे कार्यकर्ता
विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को चुनाव प्रभारी और असम के मुख्यमंत्री हिमंता विस्व सरमा को सह प्रभारी बनाया था। दोनों नेताओं ने अपने तरीके से पार्टी को सत्ता में लौटा लाने की भरपूर कोशिश की। हालांकि भाजपा को इसमें भारी असफलता हाथ लगी। चुनाव के लिए प्रभारी बनाए जाने के कारण तकनीकी रूप से इन दोनों ही नेताओं की झारखंड के प्रति अब कोई महती जिम्मेदारी नहीं रही। लेकिन पार्टी के कार्यकर्ता एक नेता के रूप में इन्हें देखना चाहते हैं। हार से मिली सबक के बीच उनसे किसी नयी राह सुझाने की आशा करते हैं। पर दोनों ही नेताओं के चुनाव बाद झारखंड से नाता तोड़ लेने के कारण, हताश और निराश हैं।
गांव में अभी भी पैठ बनाना मुश्किल हो रहा
राज्य की हेमंत सोरेन सरकार द्वारा विधानसभा चुनाव पूर्व शुरू की गयी मंईयां सम्मान योजना का असर गावों में असरकारी बना हुआ है। भाजपा के लिए गावों में पैठ को मजबूत बनाना मुश्किल हो रहा है। पैसा और निकाय चुनाव को लेकर बीच बीच में उठायी जानेवाली आवाज भी अचानक दब सी जा रही है। इस तरह झारखंड में भाजपा कैजुअल वर्किंग से ही अपने तो संतुष्ट और मस्त समझ रही है।
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